प्रेरक कहानियां - पार्ट 109
शिवाजी को बुढ़िया की सीख
बात उन दिनों की है, जिन दिनों छत्रपति शिवाजी मुगलों के विरुद्ध छापा मार युद्ध लड़ रहे थे। एक दिन रात को वे थके- माँदे एक वनवासी बुढ़िया की झोंपड़ी में पहुँचे और कुछ खाने के लिए माँगा। बुढ़िया के घर में केवल चावल था, सो उसने प्रेम पूर्वक भात पकाया और उसे ही परोस दिया। शिवाजी बहुत भूखे थे, सो झट से भात खाने की आतुरता में उँगलियाँ जला बैठे। हाथ की जलन शान्त करने के लिए फूँकने लगे। यह देख बुढ़िया ने उनके चेहरे की ओर गौर से देखा और बोली- ‘सिपाही तेरी सूरत शिवाजी जैसी लगती है और साथ ही यह भी लगता है कि तू उसी की तरह मूर्ख है।’
शिवाजी स्तब्ध रह गये। उनने बुढ़िया से पूछा- ‘भला शिवाजी की मूर्खता तो बताओ और साथ ही मेरी भी।’
बुढ़िया ने उत्तर दिया- ‘तूने किनारे- किनारे से थोड़ा- थोड़ा ठण्डा भात खाने की अपेक्षा बीच के सारे भात में हाथ डाला और उँगलियाँ जला लीं। यही मूर्खता शिवाजी करता है। वह दूर किनारों पर बसे छोटे- छोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की अपेक्षा बड़े किलों पर धावा बोलता है और हार जाता है।’
शिवाजी को अपनी रणनीति की विफलता का कारण विदित हो गया। उन्होंने बुढ़िया की सीख मानी और पहले छोटे लक्ष्य बनाए और उन्हें पूरा करने की रीति- नीति अपनाई। इस प्रकार उनकी शक्ति बढ़ी और अन्ततः वे बड़ी विजय पाने में समर्थ हुए।
शुभारंभ हमेशा छोटे- छोटे संकल्पों से होता है, तभी बड़े संकल्पों को पूरा करने का आत्मविश्वास जागृत होता है।